जनसांख्यिकीय बदलाव
भारत के दुनिया का सबसे अधिक आबादी वाला देश बनने के मायने क्या
डॉ. जेनिफ़र डैब्स स्क्यूब्बा | फ़ोटो रॉयटर्स द्वारा
भा रत में निरंतर जनसंख्या वृद्धि और चीन में जनसंख्या ह्रास का मतलब है कि भारत ने दुनिया के सबसे अधिक आबादी वाले देश का ख़िताब हासिल कर लिया है। अकेले जनसंख्या आकार की दृष्टि से, भारत के भविष्य के बारे में बहुत कुछ अनुमान नहीं लगाया जा सकता है, लेकिन इसकी जनसांख्यिकीय गत्यामकता पर गहराई से नज़र डालने पर पता चलता है कि देश के नेताओं को अपनी अनुकूल आयु संरचना का अधिकतम लाभ उठाने और त्वरित आर्थिक विकास के लिए देश के अवसर को अधिकतम करने के लिए तेज़ी से आगे बढ़ने की ज़रूरत है।
आज, भारत की 1.429 अरब जनसंख्या, भारत और पाकिस्तान के विभाजन के कुछ ही वर्षों बाद, 1951 की जनगणना में हिसाब लगाए गए 36.1 करोड़ (361 मिलियन) से लगभग चार गुना अधिक है।
यह वह भारत है जिसे “जनसंख्या बम” के रूप में अधिकांश लोग जानते हैं, जिसका जीवविज्ञानी पॉल एर्लिच (Paul Ehrlich) ने 1960 के दशक के मध्य में देश का दौरा करने के बाद वर्णन किया था। अपनी समग्र वृद्धि के बावजूद, भारत की जनसंख्या की गत्यात्मकता आज एर्लिच द्वारा वर्णित रूप में नहीं है। 1960 के दशक में प्रति महिला बच्चों की औसत संख्या लगभग छह थी, लेकिन आज यह औसत केवल दो है, जिसे प्रतिस्थापन स्तर से नीचे माना जाता है। संयुक्त राष्ट्र के जनसांख्यिकीविदों ने भारत का प्रतिस्थापन स्तर — एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक जनसंख्या के आकार को बनाए रखने के लिए एक महिला द्वारा जन्म दिए जाने वाले बच्चों की औसत संख्या — 2.19 रखी है। औसत कुछ आंतरिक अंतर को छिपाता है, लेकिन केवल पाँच भारतीय राज्यों में प्रजनन दर 2 से ऊपर है, और बिहार में उच्चतम, 3 से कम है।
भारत की प्रजनन क्षमता में तेज़ी से गिरावट वैश्विक प्रवृत्ति का प्रतीक है। 2022 तक, 71% देशों में प्रति महिला प्रजनन दर तीन बच्चों से कम थी; 2000 में, यह संख्या केवल 56% थी।
भारत की आयु संरचना बदल रही है
दशकों की निम्न-प्रतिस्थापन प्रजनन क्षमता किसी भी देश को बड़ी मात्रा में आप्रवासन को छोड़कर, सिकुड़ने की राह पर ले जाएगी। चीन की जनसंख्या पहले से ही घटनी शुरू हो गई है, लेकिन कम प्रजनन क्षमता के साथ भी, भारत की जनसंख्या हर महीने 10 लाख (1 मिलियन) बढ़ रही है, और मध्य शताब्दी के बाद ही संख्या में गिरावट शुरू होने से की संभावना है। ऐसा इसलिए है क्योंकि भारत की अधिकांश वृद्धि “जनसंख्या आवेग” से संचालित है, जो प्रजनन क्षमता में गिरावट के बावजूद भी बढ़ती रहने की जनसंख्या प्रवृत्ति है क्योंकि प्रजनन क्षमता अधिक होने (अधिक संभावित माताओं) की तुलना में बच्चे पैदा करने वाले समूहों का आकार अपेक्षाकृत बड़ा है। दरअसल, भारत की जनसंख्या इतनी बड़ी है कि यह इस समय और मध्य शताब्दी के बीच वैश्विक जनसंख्या में अपेक्षित वृद्धि को प्रेरित करेगी। जब 2037 के आसपास दुनिया की आबादी 9 अरब (बिलियन) हो जाएगी, तब 1.6 अरब लोग भारतीय होंगे।
लेकिन भारत की जनसंख्या की आयु संरचना में भारी बदलाव आ रहा है। 25 वर्षों में भारत की औसत आयु लगभग 33 वर्ष होगी, जो आज 28 वर्ष और 1998 में 21 वर्ष थी। 50-वर्ष की कालावधि में 12 वर्ष की यह वृद्धि वैश्विक औसत आयु में वृद्धि से थोड़ा मात्र पीछे है। अब से 2048 के बीच बच्चे को जन्म देने वाले अधिकांश लोग पहले ही पैदा हो चुके हैं, और उनकी प्रजनन प्रवृत्ति की अच्छी समझ है। भारतीय महिलाओं का कहना है कि वे औसतन लगभग दो बच्चे चाहती हैं, इसलिए प्रजनन क्षमता में गिरावट जारी रहने की संभावना है। उन बच्चे पैदा करने वाले समूहों के आकार और जीवन प्रत्याशा में मामूली वृद्धि को देखते हुए, भारत की जनसंख्या अगले 25 वर्षों में 23 करोड़ (230 मिलियन) तक बढ़ जाएगी। यह महत्वपूर्ण है, लेकिन भारत ने पिछले 25 वर्षों में 43 करोड़ (430 मिलियन) का इज़ाफ़ा किया है। भारत कुछ समय तक अपेक्षाकृत युवा बना रहेगा, लेकिन भारत के कार्यबल में उम्रदराज़ युवाओं की संख्या कुछ साल पहले चरम पर थी।
भारत के जनसांख्यिकीय लाभांश की गारंटी नहीं है
अपने जनसांख्यिकीय प्रोफ़ाइल के साथ, भारत के पास जनसांख्यिकीय लाभांश — कामकाजी उम्र के लोगों के उच्च अनुपात से आर्थिक विकास में वृद्धि — हासिल करने की स्थितियाँ हैं यदि मानव पूँजी में निवेश जैसी सही सरकारी नीतियाँ लागू होती हैं। चीन की तरह, भारत के नेताओं ने धीमी जनसंख्या वृद्धि को आर्थिक विकास के लिए एक शर्त के रूप में देखा। हालाँकि, चीन के विपरीत, भारत ने उन लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए मानव पूँजी में उतना निवेश नहीं किया है। साक्षरता, विशेष रूप से महिलाओं के मामले में, वैश्विक औसत से पीछे है और देश को स्वास्थ्य में भी निवेश बढ़ाना चाहिए, जैसा कि इसकी उच्च शिशु मृत्यु दर से परिलक्षित होता है।
और भारत को जल्द काम करने की ज़रूरत है। पश्चिमी देशों में आर्थिक विकास के कारण प्रजनन क्षमता में गिरावट देखी गई; भारत में परिवार नियोजन से कमी आई। इसका मतलब है कि जनसांख्यिकीय परिवर्तन की गति तेज़ हो गई है, और भारत के लिए अपने जनसांख्यिकीय लाभांश का फ़ायदा उठाने के अवसर की संभावना कम है। पश्चिमी यूरोप में 60+ वर्षीय आबादी को 15% से 30% तक बढ़ने में 75 साल लगेंगे। जब कि इसी बदलाव के लिए भारत को केवल 34 साल लगेंगे।
भारत अभी भी अपेक्षाकृत ग्रामीण है, हालाँकि यहाँ शहर लगातार वृद्धि कर रहे हैं। दिल्ली दुनिया के बेहद तेज़ी से विकसित होने वाले शहरों में से एक है, लेकिन कुल मिलाकर, भारत की वैश्विक प्रमुखता को देखते हुए शहरीकरण अपेक्षा से अधिक पिछड़ गया है। संयुक्त राष्ट्र, भारत के शहरीकरण को केवल 33% बताता है — इसके विपरीत, चीन का शहरीकरण 65% है। शहरीकरण ऐतिहासिक रूप से आर्थिक क्षमता का प्रमुख संकेतक रहा है क्योंकि यह सेवाओं, विचारों और नौकरियों को केंद्रित करता है, इसलिए भारत का कम शहरीकरण उसके आर्थिक विकास को सीमित करता है। एक हालिया अध्ययन में अनुमान लगाया गया है कि पाँच प्रमुख भारतीय शहर अगले दशक में औसतन 1.5 से 2 गुना बढ़ेंगे। भारत के राष्ट्रीय जनसंख्या आयोग को उम्मीद है कि देश की शहरी आबादी, जो 31.8% है, अगले दशक के मध्य तक बढ़कर 38% से अधिक हो जाएगी, लेकिन यह अभी भी काफ़ी कम है। इसलिए, भारत में शहरी विकास की उच्च संभावना है लेकिन यह इस लक्ष्य से बहुत पीछे है।
वास्तव में दो भारत हैं
उत्तर और दक्षिण के बीच प्रजनन क्षमता और प्रवासन दर में अंतर के कारण, भारत एक युवा देश और एक बूढ़ा देश, दोनों है, जो वैश्विक जनसांख्यिकीय विभाजन का सूक्ष्म रूप है। भारत के उत्तरी राज्य ख़राब स्वास्थ्य और अशिक्षा से अधिक जूझ रहे हैं, जबकि दक्षिण में, केरल में पहले से ही बुजुर्गों के लिए सहायक कर्मचारियों वाले रिहायशी घरों को बनाना मुश्किल हो रहा है। जब देश को दो अलग-अलग जनसंख्या के मुद्दों को एक साथ हल करना हो तो नीतिगत प्राथमिकताएँ निर्धारित करना कठिन हो जाता है।
पुरुषों वाला भारत और महिलाओं वाला भारत भी है। विश्व बैंक के अनुसार, केवल 23% भारतीय महिलाएँ वैतनिक कार्य करती हैं, जबकि बांग्लादेश में यह 37% और चीन में 63% है। भारत में, ऐसा अधिकांश काम अनौपचारिक अर्थव्यवस्था में होता है, जिससे महिलाओं को बुढ़ापे में वित्तीय असुरक्षा का अधिक ख़तरा रहता है। भारतीय महिलाएँ भारतीय पुरुषों की तुलना में उच्च शिक्षा में भर्ती होती हैं, लेकिन भारत की अर्थव्यवस्था पुरुष प्रधान बनी हुई है। भारत की आर्थिक वृद्धि को अधिकतम करने के लिए, देश को कौशल और नौकरियों के बीच बेहतर ताल-मेल बिठाने की ज़रूरत है।
जनसंख्या की गतिशीलता की भारत के भविष्य में केंद्रीय भूमिका होगी
भारत की जनसंख्या गतिशीलता इसके भविष्य के लिए आधार तैयार करती है, लेकिन इसकी कोई गारंटी नहीं है कि धीमी जनसंख्या वृद्धि और उच्च औसत आयु मज़बूत आर्थिक विकास में बदल जाएगी। इसी तरह, इस बात की भी कोई गारंटी नहीं है कि धीमी जनसंख्या वृद्धि से स्वच्छ, अधिक संवहनीय वातावरण बनेगा। यदि सब कुछ योजना के अनुसार हुआ, तो आने वाले दशकों में भारत की 1.4 अरब की आबादी के जीवन स्तर में वृद्धि देख सकेंगे। इसका मतलब है कि उपभोग के लिए किफ़ायती और यथार्थवादी विकल्प अनिवार्य हैं, और भारत अन्य गतिशील अर्थव्यवस्थाओं के लिए बेहतर मार्ग का मॉडल तैयार कर सकता है जो इस जनसांख्यिकीय पथ पर चलेंगे। पर्यावरणीय लक्ष्य आर्थिक लक्ष्यों का भी समर्थन कर सकते हैं, यदि उनमें हरित श्रम बाज़ारों और उद्योगों में निवेश शामिल हों।
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